• गोपनीयता
    Aug 26 2022
    राजा के लिये जो रहस्य की बात हो, शत्रुओं पर विजय पाने के लिये वह जिन लोगों का संग्रह करता हो, विजय के उद्देश्य से उसके हृदय में जो कार्य छिपा हो अथवा उसे जो न करने योग्य कार्य करना हो, वह सब उसे सरल भाव से गुप्त रखना चाहिये। राज्यं हि सुमहत् तन्त्रं धार्यते नाकृतात्मभिः। न शक्यं मृदुना वोढुमायासस्थानमुत्तमम्।। राज्य एक बहुत बड़ा तन्त्र है। जिन्होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे क्रूर स्वभाव वाले राजा उस विशाल तन्त्र को सम्हाल नहीं सकते। इसी प्रकार जो बहुत कोमल स्वभाव के होते हैं, वो इस भार को वहन नहीं कर सकते। उनके लिये राज्य बड़ा भारी जंजाल हो जाता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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    2 mins
  • राज्य की रक्षा के साधन
    Aug 22 2022
    गुप्तचर रखना, दूसरे राज्यों में अपना राजदूत नियुक्त करना, सेवकों के प्रति ईर्ष्या न करते हुए उन्हें समय पर वेतन देना, युक्ति से कर एकत्र करना, अन्यायपूर्वक प्रजा के धन को न हड़पना, सत्पुरुषों की संगति करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजा का हित करना; सरल या कुटिल उपायों से शत्रुओं में फूट डालने का प्रयास करना, पुरानी इमारतों की मरम्मत करना, दिन-दुखियों की देखभाल करना, समय आने पर शारीरिक और आर्थिक दण्डों का प्रयोग करना, संग्रह-योग्य वस्तुओं का संग्रह करना, बुद्धिमान लोगों के साथ समय व्यतीत करना, पुरस्कार आदि द्वारा सेना का उत्साह-वर्धन करते रहना, प्रजा-पालन के कार्यों में कष्ट का अनुभव न करना, कोष को बढ़ाना, नगर की रक्षा का प्रबंध करना और इस विषय में दूसरों पर पूरा विश्वास न करना, पुरवासियों द्वारा राजा के विरुद्ध की गुटबंदियों को फोड़ देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों पर दृष्टि रखना, अपने सेवकों में गुटबन्दी न होने देना, स्वयं ही अपने नगर का निरीक्षण करना, दूसरों को आश्वासन देना, नीतिधर्म का अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओं की ओर से सावधान रहना और नीचकर्मी तथा दुष्ट पुरुषों का त्याग कर देना - ये सभी राज्य की रक्षा के साधन हैं। इस विषय में देवगुरु बृहस्पति ने यह श्लोक कहे हैं, उत्थानहीनो राजा हि बुद्धिमानपि नित्यशः। प्रधर्षणीयः शत्रूणां भुजङ्ग इव निर्विषः।। अर्थात् जो राजा उद्योगहीन हो वह विषहीन सर्प के समान सदैव शत्रु से पराजित होता है। न च शत्रुरवज्ञेयो दुर्बलोऽपि बलीयसा। अल्पोऽपि हि दहत्यग्निर्विषमल्पं हिनस्ति च।। बलवान पुरुष कभी दुर्बल शत्रु की अवहेलना न करे अर्थात् उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही न दिखाये; क्योंकि आग थोड़ी सी भी हो पर जला डालती है और विष थोड़ा सा भी हो तो मार डालता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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  • श्रेष्ठ राजा के लक्षण
    Aug 19 2022
    जो बुद्धिमान, त्यागी, शत्रुओं की दुर्बलताओं को जानने का प्रयत्न करने वाला, देखने में प्रसन्नचित्त, सभी वर्णों के साथ न्याय करने वाला, शीघ्र कार्य करने में समर्थ, क्रोध पर विजय पाने वाला, आश्रितों पर कृपा करने वाला, महामनस्वी, कोमल स्वभाव वाला, उद्योगी, कर्मठ तथा आत्मप्रशंसा से दूर रहने वाला है; उस राजा के कार्य उचित रूप से सम्पन्न होते हैं और वह समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है। पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः। निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः।। जैसे पुत्र अपने पिता के घर में निर्भीक होकर रहते हैं, उसी प्रकार जिस राजा के राज्य में प्रजा भय के बिना रहती है, वही राजा सबसे श्रेष्ठ है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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    2 mins
  • राजा का चरित्र
    Aug 15 2022
    जो राजा सब पर संदेह करता है और प्रजा का सर्वस्व हर लेता है, वह लोभी और कुटिल राजा एक दिन अपने ही लोगों के हाथों मारा जाता है। जो राजा बाहर और भीतर से शुद्ध रहकर प्रजा के हृदय को अपनाने का प्रयास करता है, वह शत्रुओं का आक्रमण होने पर भी उनके वश में नहीं पड़ता। यदि उसका पतन भी हो जाए तो वह सहायकों को पाकर शीघ्र ही उठ खड़ा होता है। अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेंद्रियः। राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव।। जिसमें क्रोध का अभाव होता है, जो बुरी आदतों से दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो इंद्रियों को वश में रखता है; वह राजा हिमालय के समान प्रजा का विश्वासपात्र बन जाता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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  • सहायकों की नियुक्ति
    Aug 12 2022
    जो शूरवीर और भक्त हों, जिन्हें विपक्षी लुभा न सके; जो कुलीन, निरोगी एवं शिष्टाचार वाले हों तथा सभ्य लोगों के साथ उठते-बैठते हों। जो आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए दूसरों का अपमान न करते हों। धर्मपारायण, विद्वान, लोकव्यवहार के ज्ञाता और शत्रुओं की गतिविधियों पर दृष्टि रखने वाले हों। जिनमें साधुता हो और जिनका चरित्र पर्वत के समान अडिग हो, ऐसे लोगों को ही राजा अपना सहायक नियुक्त करे। सहायान् सततं कुर्याद् राजा भूतिपुरष्कृतः। तैश्च तुल्यो भवेद् भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाधिकः।। ऐसे सहायक को राजा भलीभाँति पुरस्कृत करे और उन्हें अपने समान सभी सुविधाएं उपलब्ध कराए। केवल राजा के समान छत्र धारण करने और राजाज्ञा देने में ही राजा इस सहायकों से अधिक होना चाहिये। प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों स्थितियों में राजा को इनके साथ समान व्यवहार करना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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  • धन का महत्व
    Aug 8 2022
    राजा को अपनी प्रजा का भरण-पोषण करना चाहिये। राजा साधु पुरुषों के हाथ से कभी धन न छीने और असाधु पुरुषों से दण्ड स्वरूप धन का अर्जन करे। स्वयं प्रहर्ता दाता च वश्यात्मा रम्यसाधनः। काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च।। राजा स्वयं दुष्टों पर प्रहार करे, दानशील बने, मन को वश में रखे, सुरम्य साधन से युक्त रहे, समय-समय पर धन का दान करे और उपयोग भी करे तथा निरंतर शुद्ध और सदाचारी बना रहे। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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  • दस वर्ग
    Aug 5 2022
    मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और दण्ड - ये पाँच प्रकृति कहे गए हैं। अपने और शत्रु पक्ष के मिलाकर इन्हें दस वर्ग कहा जाता है। अपने पक्ष में इनकी अधिकता से बढ़ोत्तरी होती है और इनकी कमी से घाटा। यदि दोनों पक्ष में ये समान हों को यथास्थिति कायम रहती है। कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः। वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः।। राजा को न्याय करने में यम के समान और धन अर्जन में कुबेर के समान होना चाहिये। राजा को स्थान, वृद्धि और क्षय के अनुरूप दस वर्गों का सदा ध्यान रखना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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  • राजनीति के छः गुण
    Aug 1 2022
    यदि शत्रु अपने से बलवान हो तो उससे मेल कर लेना ‘सन्धि’ कहलाता है। दोनों का बल समान होने पर युद्ध जारी रखना ‘विग्रह’ है। दुर्बल शत्रु के दुर्ग पर आक्रमण करने को ‘यान’ कहते हैं। अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु के आक्रमण करने पर दुर्ग के अंदर रहकर आत्मरक्षा करने को ‘आसन’ कहते हैं। यदि शत्रु माध्यम श्रेणी का हो तो उसके प्रति ‘द्वैधीभाव’ का सहारा लिया जाता है अर्थात् बाहर कुछ और और अंदर कुछ और व्यवहार किया जाता है। आक्रमणकारी से प्रताड़ित होकर मित्र की सहायता लेने को ‘समाश्रय’ कहते हैं। न विश्वसेच्च नृपतिर्न चात्यर्थं च विश्वसेत्। षाड्गुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्धयावलोकयेत्।। राजा किसी पर भी विश्वास न करे। विश्वसनीय व्यक्ति का भी अधिक विश्वास न करे। राजनीति के छः गुणों सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय का अपनी बुद्धि द्वारा निरीक्षण कर उपयोग करे। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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